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Tuesday, December 22, 2009

अनजाने शहर में

नोटः यह आलेख हिंदी भाषा के सबसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र 'जनसत्ता' के नियमित कॉलम 'दुनिया मेरे आगे' में दिनांक 19 दिसंबर 2009 को प्रकाशित हो चुका है।
कुछ पाने की उम्मीद लिए मैं भी शामिल हो गयी दिल्ली के बाजार में। यहां आप जोड़-तोड़ करके कुछ पहचान तो पा लेते हैं लेकिन इस अंधी दौड़ में शामिल होकर अपना वजूद खो देते हैं। परिवार, लोगों दोस्तों, और पड़ोसियों ने बहुत समझाया पर जिद्द थी कि बस.. मुझे जाना है। कई लोगों ने मुझे अपने अनुभव सुनाए, मुझे सतर्क किया लेकिन हमेशा लगता रहा कि उनके अनुभव में सच्चाई नहीं है। मैं हरदम मानती रही कि ‘अच्छे के साथ हमेशा अच्छा ही होता है’ और इसी सिद्धांत को लेकर मैं चल पड़ी अंजाने सफर पर, अंजाने लोगों के बीच में। दिल्ली हर कदम पर आजमा रही थी कहीं डराती तो कहीं उम्मीदें जगा रही थी। दिल्ली की दौड़-धूप ने मुझे इस बात का एहसास करा दिया कि यहां सम्भावनाएं बहुत हैं पर सुकुन नहीं। इसी तर्ज पर चलती है दिल्ली। मेरी नजर में यही दिल्ली की वास्तविक पहचान है। मुझे मेरा लक्ष्य पता था पर उसके अभी भी सही रास्ते की तलाश जारी थी। दिल्ली की दौड़ती-भागती जिन्दगी बड़ी अजीब लगती है।
नौकरी की तलाश में इधऱ-उधर भटक रही थी। अधिकतर लोगों का बस यही जबाव होता ‘अभी जगह नहीं है’ कुछ लोग टाल-मटोल करके जता देते थे कि ‘आप चले जाइये यहां से हमारा समय बर्बाद मत कीजिए’। संयोग से मुझे भी दिल्ली में एक गॉड फॉदर मिल गये उन्होंने बड़े गौर से मेरी समस्या सुनी और उसे सुलझाने के लिए अपने दोस्त के ऑफिस मुझे भेज दिया। ऑफिस जाकर मैंने तमाम औपचारिकताएं निभाई घंटे भर के लम्बे इन्तजार के बाद श्रीमान जी ने मुझे अन्दर बुलाया सामने बैठने का इशारा करके वे अपनी फाइलों में व्यस्त हो गये। मैंने उनपर एक भरपूर नजर डाली। उनकी उम्र शायद 50 साल से उपर थी। आज क्या होगा के उधेड़बुन में पड़ी मैंने उनके चेहरे का पूरा निरीक्षण कर लिया था। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपने काम से ध्यान हटाकर मुझसे पूछा, “तो तुम काम करने के लिए तैयार हो” मैंने सिर हिलाकर सहमति जताई इतनी ठोकरें खाने के बाद मेरे अन्दर निराशा घर कर गयी थी मैं हर बात को नकारात्मक ढ़ग से लेने लगी थी। ऐसे में एक ठौर मिल रहा था मैं उसे ठुकराना नहीं चाहती थी। मैंने अपने लिखे हुए व्यंग्य ,कविताओं और कहानियों की कतरनें उनकी ओर बढ़ा दीं। उन्होंने कहा, “इसकी कोई आवश्यकता नहीं है” मैं थोड़ी चकित हुई मैंने विस्मय से पूछा, “क्यों सर? यह सब देखकर आप इस बात का अंदाजा लगा सकते है कि मैं कैसा लिखती हूं और मैं आपकी संस्था के लिए किस प्रकार काम कर सकती हूं”। मेरी बातों को अनसुना करते हुए उन्होंने कहा, “ठीक है ठीक है यह सब छोड़ों बस मुझे खुश रखो यह तुम्हारा काम है” अपनी हरकतों से उन्होंने यह जता दिया कि उनके इरादे नेक नहीं हैं। उनकी बातों पर मुझे गुस्सा आ गया और जो मन में आया मैंने उन्हें भला-बुरा कहा। मेरे हलक से शब्द नहीं फुट रहे थे मैं पसीने से नहा उठी। उस शख्स शायद को इन बातों की आदत हो चुकी थी। उसने बड़े ही इत्मीनान से मेरी बात सुनी और कहा, यदि तुम्हें अपनी शील, मान-मर्यादा की इतनी ही चिन्ता थी तो तुम्हें अपने घर से निकलना ही नहीं चाहिए था। जिन्दगी भर चूहे के उसी बिल में पड़ी रहती, तुम्हें बाहर आने की जरुरत ही नहीं थी या फिर.......तुम्हारे लिए दुसरा रास्ता खुला है।’ उन्होंने बाहें फैलाते हुए कहा “जो तुम चाहती हो वो सारी खुशी तुम्हें यहां मिलेगी पर थोड़ी खुशी पर हमारा हक भी तो बनता है” इसके बाद उनके चेहरे पर कुटिल मुस्कान छा गई। मैं अन्दर ही अन्दर टूट रही थी। खुद के बिखर जाने के डर से मैने झट से अपनी सारी चीजें समेटीं और बाहर की ओर निकल पड़ी। एक अजीब सी बदहवासी और छटपटाहट थी मेरे भीतर । अजीब सी बेचैनी जो मेरे पूरे अस्तित्व को झकझोर रही थी। समूचा अस्तित्व जैसे बूंद-बूंद पिघलने लगा। परिवार, दोस्त, रिश्तेदार फिर सामने आकर खड़े हो गए। सारी बातें स्मृति पटल पर फिर से आ गईं। ‘अच्छे के साथ हमेशा अच्छा ही होता है’ सिध्दान्त जैसे धराशायी हो गया था। खुद को बुध्दिजीवी वर्ग के कहलाने वालों ने इस सिध्दान्त की धज्जियां उड़ा दी हैं। एक बड़ी पराजय की पीड़ा, अन्दर तक झकझोर देने वाली तिलमिलाहट और बुध्दिजीवियों के लिए अब बस एक कड़वाहट मात्र रह गयी थी। भले ही बहुत कुछ बदल गया हो पर आज भी लड़कियों के प्रति पुरुष समाज का नजरिया नहीं बदला है। इस सच का सामना मुझे दिल्ली में आकर हुआ। गावों, कस्बों से कामयाबी के सपने लिए आने वाली न जाने कितनी लड़कियों इस सच का सामना किया होगा।

Sunday, September 20, 2009

दबी जुबान से............

मैं एक जागरुक महिला पत्रकार हूं। निश्चय ही हमारा समाज पुरुषप्रधान रहा है और आज भी उसी रूप में कायम है। आप किसी भी पद पर हों उससे फर्क नहीं पड़ता, पर आप एक महिला है सिर्फ इस कारण आपको कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। मैं ऐसे कई पुरूषों को जानती हूं, जो मिलने पर मुझसे दुआ-सलाम करना नहीं भूलते। चाहे यह मेरे लिए आदर को भाव हो अथवा समाज का डर। पर कुछ ऐसे भी हैं जिनकी निगाहें मुझे मेरे लड़की होने का अर्थ समझाती हैं। यह सच है कि हमारे देश में महिला प्रधानमंत्री रह चुकी है और महिला प्रशासन भी कायम रह चुका हैं। वर्तमान में महिला राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री भी हैं, फिर भी महिलाएं शोषण का शिकार हैं। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि बजाय इसके कि हम उनकी मानसिक वेदना को कम कर करें, हम स्त्री शोषण के विषय में लिखकर उनके प्रति सिर्फ सहानुभूति ही व्यक्त करते हैं और यहीं पर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। प्राचीन काल में स्त्री को बराबरी का दर्जा हासिल था स्त्री को देवी का रुप मानते थे कहा भी गया है यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।। शायद उस समय भी स्त्री के यौवनावस्था को ही सर्वाधिक महत्ता प्रदान की गयी थी यही कारण है कि पूरातन काल में राम और कृष्ण के बाल्यकाल का प्रसंग तो मिलता है परन्तु सीता और रुक्मणी का जीवन ही तब शुरू हुआ जब उन पर यौवन आया क्या कारण है कि यौवनावस्था से पहले या बाद में स्त्री के अस्तित्व का कोई जिक्र ही नहीं होता? उनके जीवन का ध्येय सिर्फ सौन्दर्यानुभूति कराना ही नहीं होता युवावस्था से पहले और बाद में भी उनका जीवन उतना ही सार्थक है जितना कि विशेष काल में।
एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक ने भी इस बात को जब स्वीकारा कि पुरूष अपनी सुविधानुसार स्त्री को दो भागों में बांट दिया है कमर के उपर स्त्री माता है, देवी है, और कमर के नीचे सिर्फ भोग्या है इस तथ्य को सुनकर सम्पूर्ण पुरुष व्यवस्था तिलमिला उठी। वैसे हर सच को सुनने के पश्चात ऐसी ही तिलमिलाहट होती है, पर किसी पुरुष के मुख से यह तथ्य सुनकर सन्तोषजनक अनुभूति हुई क्योंकि अब तक तो स्त्रियों को वस्तु मात्र के रुप में पुरुषों द्वारा ही तव्वजो दी गयी है।
स्त्री को इज्जत, मान-मर्यादा से जोड़कर देखे जाने में भी साजिश कि बू आती है। स्त्रीयों को दबाव में रखने के लिए, उन पर अंकुश बनाये रखने के लिए ही ये सारे प्रंपच रचे गये है। मै महिला आरक्षण बिल के खिलाफ शुरु से रही हूं इसका कोई फायदा महिलाओं को तो मिल नहीं पाता है। एक शब्द प्रचलित हुआ है प्रधानपति जिसमें महिलाओं को सभी कर्तव्यों और अधिकारों से वंचित रखा जाता हैं। यह है उस आरक्षण की सच्चाई वहां पुरुष अपना आधिपत्य जमाये रखता है स्त्री का नाम मात्र होता है।
हम महिलाओं को दया की जरुरत कतई नहीं है। सीता, सावित्री को तो कभी आरक्षण की जरुरत नही पड़ी ऐसा नहीं था कि उन्होंने कोई संघर्ष नहीं किया उन्होंने बिना किसी सहारे के अपने बलबूते पर स्वयं को त्याग तपस्या की देवी के रुप में स्थापित किया इसी को पुरुषों ने स्त्री का मानक मान लिया जबकि यथार्थ बस इतना है कि महिलाएं अपने आप को किसी भी परिस्थति में ढ़ाल सकती है यदि उसमें बलिदान देने की क्षमता है तो जरुरत पड़ने पर बलिदान ले भी सकती है ऐसी होती है स्त्रीयां। हर तरफ से स्त्रीयों को छला जाता है कभी सुरक्षा के नाम पर तो कभी मर्यादा के नाम पर। लेकिन सबसे बड़ी बिडंवना भी यही है कि स्त्री पुरुषों द्वारा ही ठगी जाती है और पुरुष का ही सहारा लेती है।
शायद इसलिए क्योंकि स्त्री पुरुष एक-दूसरे के पूरक होते है और एक-दूजे के बिना उनका कोइ अस्तित्व ही नहीं है। स्त्री पुरुष का एक-दुसरे का विरोधी होना प्रकृति के नियमों के खिलाफ है पर यह बात पुरुषों को भी समझनी होगी कि बिना स्त्री के उनकी कोइ पहचान नहीं है और ना ही अस्तित्व। ईश्वर ने मां बनने का गौरव सिर्फ स्त्रीयों को ही दिया है तो इसका कारण सिर्फ पुरुषों को बनाया है।
सृष्टि रचते समय जब ईश्वर ने स्त्री और पुरुष में कोइ भेदभाव नहीं किया तो हम और आप कौन होते हैं? ईश्वर की व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने वाले। यह सच है कि स्त्रीयों का शोषण पुरुषों द्वारा किया जाता है किन्तु इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि स्त्री ने अपने उपर होने वाले हर ज्यादतीय को सहर्ष स्वीकार किया है जैसा कि अरस्तू ने कहा है कि “यदि आप स्वंय को गधा घोषित कर देंगे तो सारी दुनिया अपना बोझ आपके उपर रख देगी”। इसलिए जरूरत है तो बस महिलाओं के जागृत होने की और उन सारे बोझों को उतार फेंकने की जो उसे झुका रहे है। उन्हें स्वयं सामने आना होगा स्वयं लड़ना होगा अपनी ज़रूरतों के लिए, और अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के लिए।

Thursday, August 13, 2009

बदसूरती के फायदे

आजकल रिसर्च करने का मौसम अपने चरम पर है। एक दिन मुझे भी सनक सवार हुई कि मैं भी रिसर्च करूं कि लोग किस तरह की पत्नी को प्राथमिकता देते है, कैसी पत्नी चाहते है। जमाना बदला है, लोग बदले है और समय के अनुसार लोगों की सोंच भी बदली है। यह सवाल जितना टेढ़ा है उससे ज्यादा टेढ़ा इसका जबाव है। इस शुभ कार्य को करने से पहले मैंने यह जरूरी समझा कि दूसरों के घर में झांकने से पहले मैं अपने घर में देख लूं। इसलिए मैंने इस पुनीत कार्य का सुभारम्भ अपने ही घर से किया। मेरे भाई साहब सभी मामलों में अपने उत्तम विचार जरुर व्यक्त करते हैं। मैंने एक इंटरव्यूवर की तरह अपना यक्ष प्रश्न उनके समक्ष रख दिया। भाई साहब ने मुझे एक टीचर की भांति भली प्रकार सुना फिर उसने अपने एक पैर पर दूसरा पैर रखते हुए अपने गले को साफ किया और अपने ख्वाबों की बीबी की कलाकृति विचारों के जरिए मेरे समक्ष रेखांकित करनी शुरू की। " मेरी बीबी वही हो सकती है जिसका रंग पूर्णतया श्याम हो ताकि उसके बालों और चेहरे में कोई फर्क न किया जा सके यानि उसके पास गोरी चमड़ी न हो पर वह भरपूर दमड़ी जरूर होनी चाहिए। उसका वजन एक स्वस्थ भैंस के आस-पास होना चाहिए। उसकी हंसी ऐसी भयंकर होनी चाहिए कि एक बार मिलने के पश्चात दुबारा मिलने की तमन्ना ना हो ।" मुझे तनिक भी यह अंदाजा नहीं था कि समय बदलने के साथ लोगों की सोंच में इतना बड़ा परिवर्तन आ गया है। भाई का यह वैचारिक तीर मेरे लिए असहनीय था। दुनिया की किसी भी लड़की को ये विचार पसंद नहीं आ सकते। हम लड़कियां जो ब्यूटी पार्लर में अपना सारा पैसा बहा देती हैं उसकी ऐसी बेकद्री हम कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते। इस दौरान मैंने दूसरा प्रश्न दागा कि भला इस समय जबकि हर कोई गोरी चमड़ी के पीछे भाग रहा है तो आपके विचार इतने अलग क्यों हैं ? भाई साहब मुझे देखकर शातिर नेता की तरह मुस्कराए और मुझे नासमझ बच्चे की तरह समझाते हुए लड़की के खूबसूरत न होने के फायदे गिनाना शुरु किया। "तुम तो जानती ही हो कि आजकल जमाना कितना खराब है। हर जगह छोटी-छोटी बातों पर दंगे फसाद हो रहे है। पत्नी के बदसूरत होने से पहला फायदा यह होगा कि न तो लोग उस पर फिदा होगें और न ही फब्तियां कसेंगे और इससे मुझे किसी से मारपीट भी नहीं करनी पड़ेगी। दूसरा फायदा यह होगा कि वह मेरे अफेयरों पर भी शक नहीं करेगी क्योंकि उसे हमेशा यह विश्वास रहेगा कि अगर मेरी लाइफ में कोई और होता तो मैं उसे पसंद ही क्यों करता ? इसके अलावा अन्य लड़कियां मेरे साथ रह सकेंगी और शादी के लिए दबाब भी नहीं बनायेंगी।" बीवी की बदसूरती के फायदे सुनकर मेरा मुंह खुला का खुला रह गया। मेरे पास अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि मैं अपने इस शोध कार्य को आगे बढ़ा पाती। मैं धीरे से उठी और अपने थके कदमों से धीरे-धीरे बाहर चली आई।