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Wednesday, September 12, 2012

जाने कहाँ गए वो दिन


कहते हैं, बरगद बूढ़ा हो जाए तब भी वह छाँव ही देता है लेकिन आधुनिकता की इस दौड़ती-भागती पीढ़ी को यह बात समझ में नहीं आ रही है। वो दिन चले गए, वो लम्हे गुजर गए जब बुजुर्गों के साए में बचपन फला फूला करता था अब बुजुर्ग वृद्धाश्रम में नजर आते हैं और बचपन कम्प्यूटर और वीडियो गेम के बीच नजर आता है। आधुनिकता का लबादा ओढ़े हमारा समाज, हमारा परिवार बुजुर्गों को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। परिवार में बड़े-बुजुर्गों से सलाह-मशविरा करने के बजाय उन्हें चुप रहने की सलाह दी जाती है। उनका बोलना खलल समझ में आता है। घऱ में वृद्धों की स्थिति पुरानी वस्तुओं सी हो गई है जिससे घर की खूबसूरती में दाग समझा जाने लगा है।
देश में वृद्धाश्रमों की गिनती अब तक नहीं की गई है इसका सरकार या गैर सरकारी स्तर पर कोई भरोसेमंद सर्वे नहीं हुआ है लिहाजा कोई वृद्धाश्रमों का कोई निश्चित आकड़ा नहीं है लेकिन इनकी उपयोगिता बढ़ रही है इसलिए इनकी संख्या में भी बढ़ोतरी हो रही है। समाज कल्याण मंत्रालय के मुताबिक देश में 2008-09 में 278 वृद्धाश्रम सक्रिय थे जो 2009-10 में बढ़कर 728 हो गए। इनमें से करीब आधी संस्थाएं दान पर आश्रित हैं जबकि कुछ संस्थाएं अपने यहाँ बुजुर्गों को पनाह देने की फीस वसूलती हैं।
वृद्धाश्रमों की संख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है बड़े-बुजुर्गों के सम्मान का ग्राफ उतनी ही तेजी से नीचे गिर रहा है। ओल्ड एज होम की डिमांड बड़े शहरों में ही नहीं बल्कि छोटे शहरों और कस्बों में भी बढ़ी है। दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में दो दर्जन से ज्यादा ओल्ड एज होम चल रहे हैं। इनकी बढ़ती संख्या इनकी बढ़ती उपयोगिता यह बताने के लिए काफी हैं कि घर में बुजुर्ग माँ-बाप की क्या हैसियत रह गई है।  
जिन्होंने कभी अपनी उंगली का सहारा देकर चलना सिखाया, कंधे पर बिठाकर दुनिया दिखाई, जब भी कभी कदम लड़खड़ाए आगे बढ़कर थाम लिया। वक्त बदला, बच्चा जवान हुआ और उसे सहारा देने वाले कंधे बूढ़े हो गए। अब जब इन कंधों को सहारॆ की जरूरत पड़ी तो अपने बेगाने हो गए। इस भीड़ भाड़ वाली दुनिया में उन्हें बेगाना कर दिया गया। उन्हें ओल्ड एज होम भेज दिया गया।
हकीकत यह भी है कि बुजुर्ग घर की चारदीवारी के भीतर खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं, बुजुर्गों को सताया जा रहा है, अपने ही घर में वे उपेक्षा के शिकार हैं, बेटे बहुओं का तिरस्कार सहने के लिए बेबस हैं लिहाजा अब बुजुर्ग भी घर में रहना नहीं चाहते। एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि बुजुर्ग भी अब घर की चारदीवारी में नहीं रहना चाहता। बुजुर्गों ने ओल्ड एज होम को अब स्वीकारने लगे हैं, बुजुर्ग मानने लगे हैं कि ओल्ड एज होम घर से बेहतर जगह है क्योंकि वहाँ हमउम्र के लोग साथ रहते हैं, सुख-दुख बांटते हैं, आपस में बोलते बतियाते जीवन के कड़वे-मीठे अनुभव सुनाते वक्त कट जाता है। हालांकि बुजुर्गों की बहलाव भरी इन बातों के पीछे होने वाली मानसिक प्रताड़ना भी कहीं से कम नहीं होती होगी। बुढ़ापा या शारीरिक शिथिलता प्रकृति के जीवन चक्र का हिस्सा है यह नियम हर किसी पर समान रूप से लागू ता है लिहाजा इसे मानसिक रूप से सहर्ष स्वीकार लेने की प्रवृत्ति भी होनी चाहिए।
देश में लगातार बढ़ रही वृध्दाश्रमों की संख्या यह बताती है कि बुजुर्ग अब हमारे लिए अनवांटेड हो गए हैं। वे आज की दुनिया के खांचे में फिट नहीं बैठ पा रहे हैं। उन्हें हमारी जरूरत हो या न हो, पर हमें उनकी जरूरत नहीं है। बुजुर्गों का समझाना, खुद की स्वतंत्रता में बाधक मालूम होता है। खुद की स्वतंत्रता के लिए बुजुर्ग को वृध्दाश्रम में छोड़ दिया।
घर-परिवार के बीच बुजुर्ग माँ बाप की स्थिति जितनी दयनीय होती जा रही है हमारे समाज में उनकी व्यवस्था और सहुलियत के नाम पर उतने ही वृध्दाश्रम खुल रहे हैं। हमारे देश में बुजुर्गों (60 साल और इससे ज्यादा उम्र) की तादाद तकरीबन 10 करोड़ है यानी कुल आबादी का 8.2% संख्या बुजुर्गों की है। बीते कुछ सालों में भुखमरी का शिकार होने वाले लोगों में सर्वाधिक संख्या बुजुर्गों की है और शहरी इलाकों में बेघर होने वाले लोगों में सबसे ज्यादा बुजुर्गों की है। हैरान करने वाली बात तो यह है कि करीब 60 फीसदी बुजुर्ग को अपनी जीविका चलाने के लिए काम करना पड़ रहा है जबकि जीविकापार्जन के लिए काम करने को बाध्य बुजुर्ग महिलाओं की तादाद 19 फीसदी है।  
वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा खंडित होने लगी है। एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में  बुजुर्ग की उपस्थिति खटकने लगी है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोडना नहीं चाहते और आधुनिक पीढ़ी अपनी आधुनिकता के पहिए की गति के साथ ही भागना चाहती है। पीढियों के द्वन्द में अक्सर झुर्रियाँ हाशिए पर चली जाती हैं। हमें कभी अपने परिवार के बड़े बूढ़ों की अंतर्वेदना का आभास नहीं होता हम नहीं जानना चाहते कि वे किस मनोदशा से गुजर रहे हैं। और उन्हें अनदेखा कर देते हैं।
उस पीढी ने जीने की राह दिखाई जीने की अपार सम्भावनाएँ दी, जीवन की हरियाली दी और हम उऩ्हें दे रहे हैं कांक्रीट के जंगल। उन्होंने हमे बनाया संवारा और अपनापन दिया लेकिन वे अपनों के बीच ही बेगाने कर दिए गए। उन्होंने हर इच्छा को स्वीकारा हर शरारत को हँसी में उड़ा दी, लेकिन उनकी इच्छा को अनदेखा कर दिया गया क्योंकि वे आपके आसरे हैं। वे सभी को एक साथ देखना चाहते हैं, लेकिन बड़प्पन की इस दुनिया में हमने अपना अलग-थलग संसार बना लिया है, जिसमें उऩके लिए कोई जगह नहीं है। वे जोडना चाहते थे, लेकिन खुद की श्रध्दा तोडने में रही। घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित रहना।
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं, संसार हैं। लेकिन वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात की इशारा कर रही है कि बुजुर्ग हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं। हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं।

Friday, August 31, 2012

महत्वाकांक्षा नहीं, सोच का सवाल

मर्र्दो के बनाए इस समाज में स्ति्रयों का अस्तित्व भी उन्हीं की सहूलियत के हिसाब से तय किया गया है। जहां स्त्री की उड़ान वह तय करता है, जहां स्त्री तब तक कामयाब है, जब तक पुरुष चाहता है। एमडीएलआर की पूर्व डायरेक्टर गीतिका और वकील फिजा की मौत इसकी एक बानगी है। इनकी मौत की वजह महज महत्वाकांक्षा नहीं है, बल्कि पुरुषों की वह मानसिकता है जो यह मानकर चलती है कि स्ति्रयां पुरुषों के मनोरंजन के लिए घर से निकलती हैं। वे सोचते हैं कि जब तक स्ति्रयां उनके इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती हैं तब तक फिजा में बहार रहेगी, लेकिन जब परिस्थितियां उनके अनुकूल नहीं रह जातीं तो गीतिकाओं से उनके जीने का हक भी छीन लिया जाता है। समाज द्वारा बनाए स्त्री विरोधी नियमों की धज्जियां उड़ाकर एक बेबाक जिंदगी जीने का फैसला लेने वाली स्ति्रयां क्यों अपनी जिंदगी खत्म कर देती हैं? आसमान की ऊंचाइयां छू लेने के बाद भी ऐसा क्या है, जो उन्हें मौत को गले लगाने के लिए मजबूर करता है? उनके लिए आत्महत्या ही आखिरी विकल्प क्यों रह जाता है? विवेका बाबाजी, नफीसा जोसेफ या कुलजीत रंधवा फैशन जगत के ऐसे सितारे जिनके पास पैसा, शोहरत, नाम सब था। फैशन की रंगबिरंगी दुनिया में उनकी पहचान थी। लेकिन जिंदगी की तमाम सुविधाओं के बीच भी जीने की हसरत नहीं रह गई। आम राय है कि चकाचौंध अंधा करती है। लिहाजा, रैंप से उतरने के बाद की जिंदगी इन्हें रास नहीं आती। लेकिन फिजा और गीतिका का संबंध सतरंगी सपने दिखाने वाली रंग-बिरंगी दुनिया से नहीं था। फिजा पेशे से वकील थींऔर गीतिका एयरहोस्टेस और फिर एमडीएलआर की डायरेक्टर भी। अनुराधा उर्फ फिजा और चांद मोहम्मद उर्फ चंद्रमोहन दोनों ने एक-दूसरे के लिए अपना-अपना करियर छोड़ा। प्रेम विवाह किया लेकिन कुछ दिनों बाद चंद्रमोहन का प्रेम फिजा के लिए खत्म होने लगा। वह प्रेम अब पहली पत्नी के लिए जाग उठा। लिहाजा वह अपनी पत्नी के पास लौट गए। उनकी पत्नी ने उन्हें सहर्ष स्वीकार भी कर लिया, क्योंकि, हमारे समाज में पुरुष हमेशा ही संपूर्ण और निश्छल होता है। वह अपनी इसी छवि के भरोसे पर स्ति्रयों को छलता है। लेकिन अब फिजा के लिए रास्ते बंद हो गए। पुरुष हर गलती के बाद वापसी कर सकता है, मगर स्त्री के लिए उसकी पहली गलती ही आखिरी साबित होती है। फिजा की मौत अब भी अबूझ पहेली बनी हुई है। गीतिका के चचेरे भाई गौरव की मानें तो कांडा की नौकरी छोड़ने के बाद वह अमीरात एयरलाइंस में नौकरी करने दुबई गई थी। वहां से उसकी नौकरी कांडा ने छुड़वाई और दोबारा अपनी कंपनी ज्वॉइन करने के लिए दबाव बनाया। महज 23 साल की उम्र में गीतिका को कंपनी के डायरेक्टर का पद दे दिया गया। गीतिका ने फिर उसकी कंपनी ज्वॉइन की और फिर छोड़ दी, लेकिन कांडा ने उत्पीड़न और दबाव जारी रखा। गीतिका ने उस पर भरोसा किया, पर वह छली गई। एक स्त्री का अकेलापन पुरुष के अकेलेपन से अलग होता है। चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। उनका भावनात्मक जुड़ाव ही उन्हें प्रेम की ओर खींचता है। किसी से जुड़ने पर यह उनकी सबसे बड़ी ताकत होती है, लेकिन अलग होने पर यही भावनाएं उन्हें इतना मजबूर करती हैं कि वे बिखर जाती हैं। एक तो समाज का दोहरा व्यवहार, उस पर उनका अकेलापन उन्हें निगल जाता है। पुरुष के लिए विकल्प हमेशा खुले होते हैं। अगर वह पत्नी को छोड़कर प्रेमिका के पास जाना चाहे तो भी और प्रेमिका को दगा देकर पत्नी के पास लौटना चाहे तो भी। समाज उसे बिना किसी सवाल के स्वीकार कर लेता है। जबकि स्त्री के मामले में ऐसा नहीं है। समाज तो क्या, परिवार भी उसका साथ नहीं देता और वह नितांत अकेली पड़ जाती है। यही वजह है कि 2007 में अदालत गर्भवती मधुमिता शुक्ला की हत्या करवाने के मामले में उनके प्रेमी अमरमणि त्रिपाठी को आजीवन कारावास की सजा सुनाती है और उसी साल वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में महाराजगंज जिले से जीतता है। शेहला मसूद और शशि की मौत की कडि़यां भी ऐसी ही कहानियां पिरोती हैं। गीतिका को गलत कहने वाले अपने तर्क को सही ठहराने के लिए कह रहे हैं कि इस तरह से आगे बढ़ने की चाहत रखने वाली लड़कियों का अंजाम ऐसा ही होता है। उनकी मानसिकता ऐसा कहकर किस ओर इशारा कर रही है यह सभी समझते हैं। गीतिका को गलत ठहराने में वे महिलाएं भी शामिल हैं जिन्हें लैंगिक गुलामी में कोई दोष नजर नहीं आता। दरअसल, हमारे समाज में समस्या ही यही है कि जहां मानसिकता बदलने की बात होती है, पुरुष महिला को नियंत्रित करने और उन पर पाबंदी लगाने में ज्यादा यकीन करते हैं। पुरुषवादी मानसिकता हमेशा ही स्त्री विरोधी रही है। उनकी नजर में स्त्री का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। स्त्री पुरुष की इसी जड़ता को पहचान नहीं पाती, लिहाजा वह दासता की जंजीरों से बाहर नहीं निकल पाती। स्त्री संघर्ष की जो शुरुआत हुई है, उसके लिए समाज तैयार नहीं है। समाज महिला का पक्ष लेकर खड़ा नहीं हो सकता। स्ति्रयों का भावनात्मक होना, उनका मानसिक रूप से कमजोर होना उन्हें तोड़ देता है और सामाजिक रूढि़यां उन पर हावी हो जाती हैं। चुनौतियों से लड़ रही स्ति्रयों को ये रूढि़यां दबोच लेना चाहती हैं। जहां उनकी मानसिक दृढ़ता कमजोर होती है वहीं सामाजिक रूढि़यां हावी हो जाती हैं। फिर उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन पर चारित्रिक दोष मढ़े जाते हैं, ताकि वे अपने साहसिक निर्णय से पीछे हट जाएं और रूढि़यों के आगे अपने हथियार डाल दें। बस यही समाज उन पर दोष मढ़कर आसानी से उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश में लग जाता है। सामाजिक रूढि़यों से लड़ने के लिए साहस की जरूरत होती है, और डटे रहने के लिए दृढ़ता और आत्मबल की। संघर्ष के साथ डटे रहने के लिए हर स्त्री को अपनी कमजोरियों पर काबू पाते हुए नई इबारत रचनी होगी। शुरुआत हो चुकी है, बस इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। वरना, न जाने कितनी गीतिकाएं इसी तरह कांडाओं का शिकार होती रहेंगी।

Saturday, May 5, 2012

ेहमें भी है जीने का हक

कहते हैं बेटियां ठंडी छांव होती हैं और घर की रौनक भी. वे जननी हैं तो पालनहार भी.
लेकिन लगता है हमारे समाज में बहुतों को यह रौनक रास नहीं आ रही है, शायद यही वजह है कि बेटियों के प्रति हद दर्जे की कई झकझोर देने वाली खबरें सामने आ रही हैं. कहीं बच्चियों को लावारिस छोड़ा जा रहा है, तो कहीं इस दुनिया की आबोहवा से वाकिफ होने से पहले ही उनका गला घोंटा जा रहा है. 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बेटी बचाओ अभियान चलाने वाला हमारा समाज यह सब देख-सुनकर आंखें बंद कर लेता है. समाज में अन्याय के प्रति आवाज उठाने के बजाय आंखें बंद कर लेना बेहतर समझा जाता है. यह हालात ऐसे समय है जब बेटियां लगातार आगे बढ़ रही हैं और अपने परिवार का नाम देश-दुनिया में रौशन कर रही हैं. वे सरहद पर न केवल मुल्क की निगहबानी कर रही हैं बल्कि अपने बुजुर्ग मां-पिता का बोझ उठाकर उनका सहारा बन रही हैं.

जनगणना-2011 के आंकड़ों में एक कड़वी हकीकत यह सामने आई कि 0-6 साल आयु वर्ग में बच्चियों की तादाद कम हुई है. 2001 में लिंगानुपात यानि 1000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद 926 थी जो 2011 में घटकर महज 914 रह गई. आजादी के बाद से यह अब तक का सबसे खराब स्तर है. जनगणना आयुक्त सी चंद्रमौलि ने भी इसे बेहद चिंताजनक स्थिति करार दिया है.

इसका कारण यह है कि हम मीडिया, सोशल नेटवर्किंग साइट्स में बेटियों को बचाने का डंका पीटते हैं, सेमिनारों का आयोजन करते हैं, महिलाओं के हित के लिए कानून बनाते हैं, पर अपनी सोच कभी नहीं बदलते. इसी के चलते सारी योजनाएं कागजी पैमाने पर तो खरी उतरती हैं पर उनका असलियत से कोई लेना-देना नहीं होता. मसलन, प्रसव से पहले भ्रूण के सेक्स की जांच पर रोक लगाने के लिए पीएनडीटी एक्ट है लेकिन इसे अब तक सख्ती से लागू नहीं किया गया है.

नेशनल कमिश्नर फॉर विमेन (एनसीडब्ल्यू) ने पिछले साल सरकार से पीएनडीटी एक्ट को और सख्त बनाने की मांग की थी लेकिन अब तक इस ओर कुछ नहीं किया गया है. वैसे तो हमारे आस-पास आए दिन बेटियों, महिलाओं के अपनों के ही हाथों मारे जाने की खबरें आती हैं. कभी इज्जत के नाम पर, कभी बेटों की चाह में तो कभी आर्थिक विपन्नता की आड़ में बेटियों का गला रेत दिया जाता है.

दूरदराज इलाकों में हुई ऐसी घटनाओं से लोग वाकिफ भी नहीं हो पाते लेकिन कुछ मामले ऐसे भी आए है जिनकी जानकारी से देश का कोई भी कोना अछूता नहीं रह गया है. पश्चिम बंगाल के बर्दवान में एक शख्स ने अपनी तीन बेटियों और गर्भवती पत्नी को मार डाला, सिर्फ इसलिए क्योंकि उस शख्स को डर था कि कहीं चौथी बेटी पैदा न हो जाए. वहीं दिल्ली स्थित एम्स में लावारिस फलक को जख्मी हालात में भर्ती कराया गया, जहां वह जिंदगी से हार गई.

बेंगलुरू में तीन महीने की आफरीन को कथित तौर पर उसके पिता ने सिगरेट से जलाकर बेरहमी से पीटा जिसके बाद उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया. ग्वालियर में एक व्यक्ति ने पिछले साल अक्टूबर में अपनी नवजात बेटी को अस्पताल में तंबाकू खिलाकर मार डाला. सुल्तानपुर में एक शख्स ने अपनी पत्नी को बच्चियां पैदा करने के ‘जुर्म’ में जला दिया साथ ही अपनी तीन बेटियों को भी आग के हवाले कर दिया. यह वे घटनाएं हैं जो मीडिया की सक्रियता के चलते सामने आई हैं, अन्यथा कई बार ऐसा होता है कि बेटियों को जन्मते ही मार दिया जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता. 

विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि रूढ़िवादी राज्यों में बच्चियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है. दिल्ली और उसके आसपास की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक है. दिल्ली में यह आंकड़ा 1000 बच्चों पर 882, हरियाणा में 849, जम्मू-कश्मीर में 870, पंजाब में 836, राजस्थान में 875 और उत्तर प्रदेश में 874 है. लगता है इन इलाकों में लोग बेटी नहीं सिर्फ बहू चाहते हैं, भले ही उसे खरीद कर लाना पड़े.

महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में यह संख्या 896 होना चिंता का कारण है, क्योंकि वहां रूढ़ियां इतनी अधिक नहीं हैं. यह आंकड़े सभ्य समाज को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त हैं. हालांकि कई सामाजिक संगठनों ने इसके लिए काम शुरू किया है, धार्मिंक संगठनों ने विशेष अभियान चलाया है, लेकिन इसका असर तो फिलहाल नजर नहीं आ रहा है.

कहते हैं कि अगर किसी समाज के विषय में जानना हो कि वह अच्छा है या बुरा तो वहां पर महिलाओं की स्थिति का अध्ययन कर लीजिए. हाल ही में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक-सामाजिक मामलों के विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत लड़कियों के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित देश बन गया है. इस रिपोर्ट को 150 देशों के 40 साल के रिकॉर्ड को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है.

भारत में 1 से 5 साल तक की करीब 75 फीसद बच्चियों की मौत हो जाती है. यह विश्व के किसी भी देश में होने वाली शिशु मृत्यु दर में लैंगिक असमानता की सबसे बदतर स्थिति है. चीन में 76 लड़कों की तुलना में 100 और भारत में 56 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों की मौत होती है. अन्य विकासशील देशों में यह आंकड़ा 122 लड़कों की तुलना में 100 लड़कियों का है. यहां तक कि पाकिस्तान, श्रीलंका, मिस्र और इराक में भी लड़कियों की स्थिति में सुधार देखा गया है.

भारत में बच्चियों की स्थिति का यह आंकड़ा वाकई भयावह है. विरासत और संस्कृति का दंभ भरने वाले शहरों में सड़कों पर लावारिस हालात में मिल रहीं बच्चियां सभ्य होने का दावा कर रहे समाज को उसका असली चेहरा दिखा रही हैं. तमाम भारतीय परिवारों में घर के भीतर नवजात बच्चियों पर अमानवीय अत्याचार किए जाते हैं, इतना करने के बाद भी अगर उस बच्ची की सांसे नहीं टूटतीं तो उसे जला दिया जाता है, नाले में फेंक दिया जाता है या दफना दिया जाता है और कारण बताया जाता है आर्थिक परेशानी.

बच्ची के हत्यारे अभिभावक यह दलील देते हैं कि उनके पास इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वे बेटी का पालन-पोषण कर सकें. लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस तरह से सीमित आमदनी में बेटों का लालन-पालन किया जा सकता है, क्या उसी सोच के साथ बेटी को जीने का हक नहीं दिया जा सकता?

Sunday, April 15, 2012

पहचान नहीं पहनावा



महिला को उसकी देह-यष्टि से तौलना उसकी बौद्धिक महिमा को मद्धिम समझने की हिमाकत करना है। लेकिन महिलाओं को परखने वाली मानसिकता उनके लिबास, स्टाइल, फिजिक से ही प्रभावित होती है। शीर्ष पदों पर बैठी दुनिया की तमाम महिलाओं की प्रतिभा को आंकने वालों की कट्टर मर्दवादी सोच किस कदर आड़े आ जाती है, इससे यह समझा जा सकता है
समय के साथ चलते हुए भी कुछ मानसिकताएं जल्दी नहीं बदलतीं। हम चाहे कितने भी आगे बढ़ जाएं अथवा आधुनिक होने का दावा करते रहें, हमारी मानसिकता वही की वही रहती है। क्या यह गजब नहीं है कि आज भी महिलाओं की शिक्षा, योग्यता, कार्यकुशलता, मेहनत, दक्षता और बुद्धिमत्ता को दरकिनार कर उनकी पहचान उनके वस्त्रों, लुक्स और फिगर के आधार पर की जाती है। अगर महिला की सूरत पुरुषों को भाने वाली हो तो उसके लिए सारी व्यवस्था कर दी जाती है, उसकी अक्लमंदी बाद में देखी जाती है। ऐसी धारणाएं आज भी बरकरार हैं। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां महिलाओं को उनकी योग्यता या कर्मठता की वजह से जाना जाता है। भले ही बाद में स्त्री अपनी बुद्धिमत्ता से दूसरों पर बीस या इक्कीस साबित हो, लेकिन उसके अच्छा होने की पहचान उसकी शक्ल-सूरत और कपड़े-लत्तों से ही बनती या बिगड़ती है। हमारे गणतंत्र दिवस समारोह में थाईलैंड की प्रधानमंत्री यिंग्लक शिनवात्रा भारत आई थीं। थाईलैंड ऐसा देश है, जिसे पूरी दुनिया सेक्स सेंटर के रूप में देखती है। शिनवात्रा उस मुल्क की पहली महिला प्रधानमंत्री हैं। ऐसी हस्ती का हमारे बीच होना वाकई गर्व की बात थी लेकिन उनके आने पर उनकी राजनीतिक उपलब्धियों से ज्यादा लोगों ने उनके लुक्स और पहनावे को अहमियत दी। वे क्या और कैसी हैं, इस पर वे कैसी दिखती हैं, यह भारी पड़ गया। उनकी फिगर और ड्रेस ही चर्चा का विषय रहे। उनसे मिलने वाले पुरुषों को खूबसूरत महिला से मिलने की खुशी ज्यादा थी, थाईलैंड की बागडोर संभालने वाली समय नह प्रधानमंत्री से मिलने का गौरव कम। ज्यादातर लोगों की रुचि उनकी स्टाइल और ड्रेस में थी, न कि इतना बड़ा पद और उसकी जिम्मेदारियां संभालने की उनकी कला में। यह बात समझ से परे है कि आखिर महिला की उपस्थिति बाकी तमाम बातों की गंभीरता को खत्म क्यों कर देती है? अगर बात फैशन की दुनिया की हो तो फिर भी समझ में आती है, क्योंकि फैशन की दुनिया सजने-संवरने, कपड़ों, लुक्स, स्टाइल और फिगर पर ही चलती है। लेकिन राजनीति में भी यही सब चीजें क्यों केंद्रीय हैं? राजनीति जैसे क्षेत्र में शख्सियत से ज्यादा उनके पहनावे और लुक्स की चर्चा महिलाओं की उपलब्धि को हल्का कर देती है। यह सोच पुरुषों की यौन-केंद्रित मानसिकता को उजागर करता है। इससे पहले पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार भारत आई थीं। तब अचानक हम पड़ोसी देश से अपनी कटुता भूल गये थे। मीडिया से लेकर हर किसी की जुबान पर हिना की खूबसूरती, फिगर और गेटअप हावी था। खार से संबंधित हर खबर की शुरु आत उनकी खूबसूरती के कसीदे पढ़ने के साथ होती थी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया या फिर लोगों की जुबान, हर जगह पाकिस्तान की विदेश मंत्री की स्टाइल, लुक्स, फिगर पर ही सारा फोकस था। हिना रब्बानी खार की खूबसूरती की चमक-दमक में खोकर बाकी चीजों से लोगों का ध्यान हट गया। बेशक, इसके लिए मीडिया ही मुख्य रूप से जिम्मेदार था, लेकिन इसकी वजह क्या यह नहीं थी कि मीडिया पर परंपरागत तथा आधुनिकतावादी यौन-केंद्रित सोच की पुरुषवादी मानसिकता का कब्जा है? सुंदर या आकषर्क दिखने का प्रयास करना निंदनीय नहीं है। इसके लिए महिला और पुरुष, दोनों ही कोशिश करते हैं और खुद को आकषर्क बनाने की जद्दोजहद समान रूप से करते हैं। महिलाएं खुद को मेनटेन रखने के लिए जितनी कोशिश करती हैं, उतनी ही मशक्कत पुरुष भी अपनी बल्ले- सल्ले को बनाये रखने के लिए करता है। सजने-संवरने और दूसरों को आकर्षित करने की चाहत हर किसी की होती है। शुरू से थी और शायद आखिर तक रहेगी। आधुनिक समय में तो यह जरूरी भी माना जाता है लेकिन महिलाओं को सिर्फ उनकी सुदर्शना होने की कसौटी पर कसना उनके व्यक्तित्व के साथ गहरा अन्याय है। अब भी कंपनियां महिलाओं को ही रिसेप्शनिस्ट के लिए चुनती हैं, इसके लिए वह मानसिकता ही जिम्मेदार है, जिसके तहत माना जाता है कि महिलाएं शोपीस हैं या उन्हें देख कर फीलआएगा। नतीजा यह कि महिलाओं की योग्यता का एकमात्र पैमाना पुरुष की लालसा को संतुष्ट करने वाली फिजिकल अपीयरेंसकी कसौटी पर खरा उतरना हो गया है। पुरुषों द्वारा महिलाओं के लुक्स और पहनावे को उनके विचारों से ज्यादा तवज्जो दी जाती है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और अमेरिका की फस्र्ट लेडी मिशेल जब भारत भ्रमण पर आए थे, उस समय मिशेल की आकृति और स्टाइल चर्चा का विषय बनी। उस पूरी यात्रा के दौरान मीडिया और सार्वजनिक चर्चा में मिशेल के पहनावे और स्टाइल की चर्चाबराक ओबामा की नीतियों से ज्यादा हुई। ओप्रा विन्फ्रे के मामले में भी यही मानसिकता हावी रही। विन्फ्रे के सफल वर्तमान के पीछे बड़ा भयानक और दर्दनाक अतीत है, जिससे लड़ कर उन्होंने अपना मुकाम हासिल किया और आज वे पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। यही हाल उन अनेक महिलाओं का है, जिन्होंने नाम कमाया और पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाई। उनके वस्त्रों और लुक्स ने उन्हें वह पहचान नहीं दिलाई बल्कि नेतृत्व करने की क्षमता, योग्यता और कलात्मक ऊंचाई की बदौलत ही उन्होंने अपना मुकाम हासिल किया। स्त्री में गुण और योग्यता न हो, तो उसकी सुंदरता उसे कितनी ऊंचाई तक ले जा सकती है? गंभीर मसलों को गौण मान कर राजनीति में महिलाओं के फिजिकल अपीयरेंस और पहनावे की चर्चा, पुरुषवादी सोच को दर्शाता है। दरअसल, इस सोच के पीछे पुरुष का यह पूर्वाग्रह है कि महिलाएं गंभीर जिम्मेदारियों को उठाने के काबिल नहीं हैं। उनका किसी बड़े ओहदे पर पहुंचना और उसे संभालना महज संयोग है। इस सोच के जरिए पुरुष महिलाओं की योग्यता को नकारने की जुगत में लगा रहता है। इसलिए वह महिला को फैशन और ड्रेस के इर्द-गिर्द बांध कर देखता है और उसी के अनुसार उसका आकलन भी करता है। यह भोगवादी सामंती मानसिकता है। इससे मुक्त होने में पुरुषों को पता नहीं, कितनी सदियां लगेंगी! हैरान करने वाली बात तो यह है कि भारत समेत दुनिया के कई देशों में महिलाओं ने समय- समय पर सत्ता की कमान संभाली है और अपनी जिम्मेदारियों को बखू बी अंजाम देकर दूसरों के सामने बानगी भी प्रस्तुत की है। इसके बावजूद, उनके प्रभाव और क्षमता को पुरुष मन स्वीकार नहीं कर पाता। वह उन्हें सिर्फ स्त्री बना कर रखना चाहता है, जिसका काम पुरुषों का मनोरंजन करना है। इसीलिए पुरुष समाज महिलाओं को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता।



अगर वह संघर्ष करके आगे बढ़ती भी हैं तो पुरुषों द्वारा मात्र उसके पहनावे और फिगर पर फोकस करना स्त्री को उसकी ही निगाह में हीन बनाने के औजार की तरह काम करता है। ऐसी स्थितियां अकसर महिलाओं को असहज कर देती हैं या उन्हें अतिरिक्त रूप से सतर्क कर देती हैं। पुरुष अपनी इस मानसिकता और रवैये का इस्तेमाल महिला की योग्यता को कम करके आंकने में करता है। लेकिन ऐसा करने वाले और ऐसी सोच रखने वाले पुरुष हमेशा यह भूल जाते हैं कि ये हरकतें उनकी ओछी मानसिकता का परिचायक भी बनती हैं। चकित करने वाली बात तो यह है कि महिलाओं को अधिकार और समानता देने की हिमायत करने वाले पुरुष भी अपनी इस विकृत सोच से उबर नहीं पाते। महिला को देह के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति शुरू से विद्यमान रही है। चाहे परंपरा हो या बाजार, दोनों जगह महिलाओं से जबरदस्ती जारी रहती है। परंपरा महिला को ज्यादा से ज्यादा ढंकना चाहती है तो बाजार उन्हें ज्यादा से ज्यादा उघाड़ना चाहता है। जो महिलाएं इन दोनों ही चंगुलों से बच निकलती हैं, उन्हें यौनवादी पुरुष मानसिकता धर- दबोचने की कवायद में जुट जाती है।