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Sunday, April 15, 2012

पहचान नहीं पहनावा



महिला को उसकी देह-यष्टि से तौलना उसकी बौद्धिक महिमा को मद्धिम समझने की हिमाकत करना है। लेकिन महिलाओं को परखने वाली मानसिकता उनके लिबास, स्टाइल, फिजिक से ही प्रभावित होती है। शीर्ष पदों पर बैठी दुनिया की तमाम महिलाओं की प्रतिभा को आंकने वालों की कट्टर मर्दवादी सोच किस कदर आड़े आ जाती है, इससे यह समझा जा सकता है
समय के साथ चलते हुए भी कुछ मानसिकताएं जल्दी नहीं बदलतीं। हम चाहे कितने भी आगे बढ़ जाएं अथवा आधुनिक होने का दावा करते रहें, हमारी मानसिकता वही की वही रहती है। क्या यह गजब नहीं है कि आज भी महिलाओं की शिक्षा, योग्यता, कार्यकुशलता, मेहनत, दक्षता और बुद्धिमत्ता को दरकिनार कर उनकी पहचान उनके वस्त्रों, लुक्स और फिगर के आधार पर की जाती है। अगर महिला की सूरत पुरुषों को भाने वाली हो तो उसके लिए सारी व्यवस्था कर दी जाती है, उसकी अक्लमंदी बाद में देखी जाती है। ऐसी धारणाएं आज भी बरकरार हैं। ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां महिलाओं को उनकी योग्यता या कर्मठता की वजह से जाना जाता है। भले ही बाद में स्त्री अपनी बुद्धिमत्ता से दूसरों पर बीस या इक्कीस साबित हो, लेकिन उसके अच्छा होने की पहचान उसकी शक्ल-सूरत और कपड़े-लत्तों से ही बनती या बिगड़ती है। हमारे गणतंत्र दिवस समारोह में थाईलैंड की प्रधानमंत्री यिंग्लक शिनवात्रा भारत आई थीं। थाईलैंड ऐसा देश है, जिसे पूरी दुनिया सेक्स सेंटर के रूप में देखती है। शिनवात्रा उस मुल्क की पहली महिला प्रधानमंत्री हैं। ऐसी हस्ती का हमारे बीच होना वाकई गर्व की बात थी लेकिन उनके आने पर उनकी राजनीतिक उपलब्धियों से ज्यादा लोगों ने उनके लुक्स और पहनावे को अहमियत दी। वे क्या और कैसी हैं, इस पर वे कैसी दिखती हैं, यह भारी पड़ गया। उनकी फिगर और ड्रेस ही चर्चा का विषय रहे। उनसे मिलने वाले पुरुषों को खूबसूरत महिला से मिलने की खुशी ज्यादा थी, थाईलैंड की बागडोर संभालने वाली समय नह प्रधानमंत्री से मिलने का गौरव कम। ज्यादातर लोगों की रुचि उनकी स्टाइल और ड्रेस में थी, न कि इतना बड़ा पद और उसकी जिम्मेदारियां संभालने की उनकी कला में। यह बात समझ से परे है कि आखिर महिला की उपस्थिति बाकी तमाम बातों की गंभीरता को खत्म क्यों कर देती है? अगर बात फैशन की दुनिया की हो तो फिर भी समझ में आती है, क्योंकि फैशन की दुनिया सजने-संवरने, कपड़ों, लुक्स, स्टाइल और फिगर पर ही चलती है। लेकिन राजनीति में भी यही सब चीजें क्यों केंद्रीय हैं? राजनीति जैसे क्षेत्र में शख्सियत से ज्यादा उनके पहनावे और लुक्स की चर्चा महिलाओं की उपलब्धि को हल्का कर देती है। यह सोच पुरुषों की यौन-केंद्रित मानसिकता को उजागर करता है। इससे पहले पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार भारत आई थीं। तब अचानक हम पड़ोसी देश से अपनी कटुता भूल गये थे। मीडिया से लेकर हर किसी की जुबान पर हिना की खूबसूरती, फिगर और गेटअप हावी था। खार से संबंधित हर खबर की शुरु आत उनकी खूबसूरती के कसीदे पढ़ने के साथ होती थी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया या फिर लोगों की जुबान, हर जगह पाकिस्तान की विदेश मंत्री की स्टाइल, लुक्स, फिगर पर ही सारा फोकस था। हिना रब्बानी खार की खूबसूरती की चमक-दमक में खोकर बाकी चीजों से लोगों का ध्यान हट गया। बेशक, इसके लिए मीडिया ही मुख्य रूप से जिम्मेदार था, लेकिन इसकी वजह क्या यह नहीं थी कि मीडिया पर परंपरागत तथा आधुनिकतावादी यौन-केंद्रित सोच की पुरुषवादी मानसिकता का कब्जा है? सुंदर या आकषर्क दिखने का प्रयास करना निंदनीय नहीं है। इसके लिए महिला और पुरुष, दोनों ही कोशिश करते हैं और खुद को आकषर्क बनाने की जद्दोजहद समान रूप से करते हैं। महिलाएं खुद को मेनटेन रखने के लिए जितनी कोशिश करती हैं, उतनी ही मशक्कत पुरुष भी अपनी बल्ले- सल्ले को बनाये रखने के लिए करता है। सजने-संवरने और दूसरों को आकर्षित करने की चाहत हर किसी की होती है। शुरू से थी और शायद आखिर तक रहेगी। आधुनिक समय में तो यह जरूरी भी माना जाता है लेकिन महिलाओं को सिर्फ उनकी सुदर्शना होने की कसौटी पर कसना उनके व्यक्तित्व के साथ गहरा अन्याय है। अब भी कंपनियां महिलाओं को ही रिसेप्शनिस्ट के लिए चुनती हैं, इसके लिए वह मानसिकता ही जिम्मेदार है, जिसके तहत माना जाता है कि महिलाएं शोपीस हैं या उन्हें देख कर फीलआएगा। नतीजा यह कि महिलाओं की योग्यता का एकमात्र पैमाना पुरुष की लालसा को संतुष्ट करने वाली फिजिकल अपीयरेंसकी कसौटी पर खरा उतरना हो गया है। पुरुषों द्वारा महिलाओं के लुक्स और पहनावे को उनके विचारों से ज्यादा तवज्जो दी जाती है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और अमेरिका की फस्र्ट लेडी मिशेल जब भारत भ्रमण पर आए थे, उस समय मिशेल की आकृति और स्टाइल चर्चा का विषय बनी। उस पूरी यात्रा के दौरान मीडिया और सार्वजनिक चर्चा में मिशेल के पहनावे और स्टाइल की चर्चाबराक ओबामा की नीतियों से ज्यादा हुई। ओप्रा विन्फ्रे के मामले में भी यही मानसिकता हावी रही। विन्फ्रे के सफल वर्तमान के पीछे बड़ा भयानक और दर्दनाक अतीत है, जिससे लड़ कर उन्होंने अपना मुकाम हासिल किया और आज वे पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। यही हाल उन अनेक महिलाओं का है, जिन्होंने नाम कमाया और पूरी दुनिया में अपनी पहचान बनाई। उनके वस्त्रों और लुक्स ने उन्हें वह पहचान नहीं दिलाई बल्कि नेतृत्व करने की क्षमता, योग्यता और कलात्मक ऊंचाई की बदौलत ही उन्होंने अपना मुकाम हासिल किया। स्त्री में गुण और योग्यता न हो, तो उसकी सुंदरता उसे कितनी ऊंचाई तक ले जा सकती है? गंभीर मसलों को गौण मान कर राजनीति में महिलाओं के फिजिकल अपीयरेंस और पहनावे की चर्चा, पुरुषवादी सोच को दर्शाता है। दरअसल, इस सोच के पीछे पुरुष का यह पूर्वाग्रह है कि महिलाएं गंभीर जिम्मेदारियों को उठाने के काबिल नहीं हैं। उनका किसी बड़े ओहदे पर पहुंचना और उसे संभालना महज संयोग है। इस सोच के जरिए पुरुष महिलाओं की योग्यता को नकारने की जुगत में लगा रहता है। इसलिए वह महिला को फैशन और ड्रेस के इर्द-गिर्द बांध कर देखता है और उसी के अनुसार उसका आकलन भी करता है। यह भोगवादी सामंती मानसिकता है। इससे मुक्त होने में पुरुषों को पता नहीं, कितनी सदियां लगेंगी! हैरान करने वाली बात तो यह है कि भारत समेत दुनिया के कई देशों में महिलाओं ने समय- समय पर सत्ता की कमान संभाली है और अपनी जिम्मेदारियों को बखू बी अंजाम देकर दूसरों के सामने बानगी भी प्रस्तुत की है। इसके बावजूद, उनके प्रभाव और क्षमता को पुरुष मन स्वीकार नहीं कर पाता। वह उन्हें सिर्फ स्त्री बना कर रखना चाहता है, जिसका काम पुरुषों का मनोरंजन करना है। इसीलिए पुरुष समाज महिलाओं को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता।



अगर वह संघर्ष करके आगे बढ़ती भी हैं तो पुरुषों द्वारा मात्र उसके पहनावे और फिगर पर फोकस करना स्त्री को उसकी ही निगाह में हीन बनाने के औजार की तरह काम करता है। ऐसी स्थितियां अकसर महिलाओं को असहज कर देती हैं या उन्हें अतिरिक्त रूप से सतर्क कर देती हैं। पुरुष अपनी इस मानसिकता और रवैये का इस्तेमाल महिला की योग्यता को कम करके आंकने में करता है। लेकिन ऐसा करने वाले और ऐसी सोच रखने वाले पुरुष हमेशा यह भूल जाते हैं कि ये हरकतें उनकी ओछी मानसिकता का परिचायक भी बनती हैं। चकित करने वाली बात तो यह है कि महिलाओं को अधिकार और समानता देने की हिमायत करने वाले पुरुष भी अपनी इस विकृत सोच से उबर नहीं पाते। महिला को देह के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति शुरू से विद्यमान रही है। चाहे परंपरा हो या बाजार, दोनों जगह महिलाओं से जबरदस्ती जारी रहती है। परंपरा महिला को ज्यादा से ज्यादा ढंकना चाहती है तो बाजार उन्हें ज्यादा से ज्यादा उघाड़ना चाहता है। जो महिलाएं इन दोनों ही चंगुलों से बच निकलती हैं, उन्हें यौनवादी पुरुष मानसिकता धर- दबोचने की कवायद में जुट जाती है।
     

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